तीसरा दिन : 8 – 10 November 2019
Blog no. 25
अमज़द अगले दिन दोबारा आया मुझसे मिलने। गौतम पुरी और सुरेश भी आए मुझसे मिलने। भूपेश भारद्वाज को तब तक नहीं पता था मेरे बारे में कि मैं जालन्धर में हूँ। हालाकि वो बीच-बीच में मेरी लोकेशन (location) देख रहा था। और जितने भी लोग थे मैंने उनको बोला कि उन्हें बता दें और वो मुझसे मिल लें। क्योंकि मैं एक ऐसे सफ़र पर था कि शायद हम फिर कभी न मिलें और उनके लिए भी एक अलग घटना थी कि उनका एक दोस्त एक अलग काम कर रहा है, साइकल चला रहा है कश्मीर से कन्याकुमारी तक। उन लोगों ने कई लोगों को बताया लेकिन अमज़द के अलावा सिर्फ दो लोग ही आए मुझसे मिलने, गौतम पुरी और सुरेश और ये लोग कहाँ आए मुझसे मिलने, जैसा कि मैंने आपको अपनी साइकल के बारे में बताया था कि मेरी साइकल में भारतीय झंडा लगाने के लिए मैंने जो तार लगाया था वो बस ड्राईवर से मेरी मदद करते समय टूट गया था, तो अमज़द ने कहा कि साइकल की सर्विस भी करानी है, एक साइकल वाला उसको जानता था, और झंडे की तार का भी इतज़ाम करते हैं। तो वही पर एक जगह है भगत सिह चौक के पास, वहाँ पर हम गए। वहाँ एक काफी बड़ी साइकल की दुकान थी। वो अमज़द को जानता था इसलिए अमज़द ने उसको पहले से ही उसको मेरे बारे में बताया हुआ था। मैं और अमज़द वहाँ गए, मैं साइकल चला कर अपनी साइकल की ड्रेस में ही गया और अमज़द अपनी स्कूटी लेकर मेरे साथ गया। वो मेरे साथ साथ चल रहा था और लोगों को देख रहा था कि वो मुझे कैसे देख रहे हैं, फोटो खींचवा रहे हैं।
फिर हम साइकल की दुकान पर पहुँचे। दुकानदार ने अपने सबसे बेस्ट कारीगर को मेरी साइकल ठीक करने के लिए दी। बोला कि इनकी साइकल को ध्यान से देखो, इस साइकल को ठीक से चेक करो और देखो कि इसमें कोई परेशानी तो नहीं है। उन्होंने मेरी साइकल को एकदम ओके (OK) कर दिया। उस कारीगर ने मुझे एक, एलनकी बोलते है, साइकल के नट वगैरह खोलने के लिए, दिया और बोला कि आप ये रख लो ये आपके आगे रास्ते मे काम आ सकती है। उन्होंने मेरी साइकल में एक नयी तार लगाई ताकि मै उसमेंं झंडा लगा सकूँ। और मेरी साइकल में एक हैन्डल का भी प्रोब्लम था जो मैैैैैैैैैैैैैैैैैैैंने आपको बताया था उसको भी ठीक कर दिया। जो मेरी साइकिल का बेयरिग अटक रहा था उसको उन्होंने कस दिया था।
जब मैं अपनी साइकल ठीक करा रहा था, उसी समय उसी जगह पर मेरे बचपन के दोस्त गौतम और सुरेश वहाँ आए। हम लोग आपस में गले मिले। आज मेरी उम 40 साल है, लेकिन जब मैं इनसे आखरी बार मिला था तब हम स्कूल मेंं पढ़ते थे। तब मेरी उम 15 साल की थी, जब मैंने अपना घर छोड़ा था। हम लोग क्लासमेट (classmates) थे। जो मेरे खास दोस्त थे वो थे मोहम्मद अमज़द, दीप भाटिया और अमित पाहवा। वहाँ से हम सब लोग ज्योति चौक वाले घर आए, वहाँ सब बैठे, काफी देर हम सबने बात करी, चाय नाशता किया साथ में। उस समय हमने अमित को बुलाने की कोशिश करी, दीप भाटिया को फोन किया पर वो नहीं आ पाए। मुझे लगा कि शायद ये कल मिलेंगे। अगले दिन मुझे बहुत तेज़ बुखार हो गया और मुझे कुछ और दिन वहाँ रूकना पड़ा। गौरव ने मुझे वैद्य से दवाई लाकर दी, वो दवाई खाई मैंने, उस दवाई से बुखार मेरा ठीक हो गया। साइकल मेरी एकदम ठीक हो गई थी। उस साइकल मेकेनिक (cycle mechanic) ने मेरी साइकल की चेन को साफ किया था, तो उसने बोला था कि आप थोड़ा सा डीज़ल लेना और उससे चेन को साफ कर लेना। सिर्फ आठ-दस बूँद ही तेल डालना उससे ज्यादा मत डालना। क्योंकि फिर उस पर ज्यादा धूल चिपकेगी। यही बात मुझे काठमान्डू। (Kathmandu, Nepal) में जहाँ से साइकल खरीदी थी, उन्होंने भी बोली थी की लोग हमेशा एक गलती करते है कि चेन मे ज्यादा तेल नही डालना चाहिए। एक तो गाढ़ा तेल डालना चाहिए जो साइकल के लिए बना भी होता है। पहले चेन को पूरा साफ करलो, फिर उसमे 7 या 8 बूँद ही तेल डालो, वो अपने आप फैल जाएगा। लोग ज्यादातर ज्यादा तेल डाल देते है, जिससे धूल ज्यादा चिपकती है और फिर वो चेन घिसना शुरू होती हे। उस साइकल मेकेनिक ने मुझे और भी काफी टिप दी थी आगे के लिए। मैंनेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे उसके साथ फोटो भी ली थी अपनी यादों के लिए। गौरव को डीज़ल तो मिला नही, तो उसने मुझे पेट्रल ला कर दिया कि इससे साफ कर लेना। एक छोटी सी बोतल में मैंने पेट्रल रखा।
जिन कपड़ो में मुझे वज़न लग रहा था, उन कपड़ो को मैंने वहीं जालन्धर में ही छोड़ दिया।
ये सफ़र मुझे बिना पैसों के करना था और लोगों के डोनेशन (donation) से करने का मैंने सोचा था पर मैं अपनी अभी तक की दो दिन की यात्रा मे झिझक के मारे किसी से बात नहीं कर पाया। मैं रास्ते के लिए एक गुल्लक (pigibank) लेकर गया था, मैंने सोचा था कि इसको साइकल के पीछे बाँध दूंगा और इस पर डोनेेशन (donation) लिख दूँगा। कोई अगर मेरी सपोट (support) करना चाहेगा तो इसमें डाल देगा। लेकिन मुझे लगा कि शायद मैं लोगो को नहीं बोल पाऊँगा, अपनी झिझक (hassitation) या शायद अपनी इगो (ego) की वजह से, पता नहीं, तो इसलिए मैंने वो गुल्लक और काफी दूसरी चीज़े जालन्धर में ही छोड़ दी।
दो दिन फालतू रूकने के बाद, जब मेरा बुखार उतर गया, तब मैंने 10 तारीख को चलने की तैयारी करी। साइकल मेरी एकदम तैयार थी, मैंने अपना बैग साइकल पर बाँधा। गौरव ने मुझे रास्ते में खाने के लिए टोफू पनीर लाकर दिया। फिर मैं वहाँ से 10ः30 बजे निकला, जबकि मुझे जल्दी निकलना चाहिए था क्योंकि मैंने सोच रखा था कि मैं अपनी यात्रा को जल्दी शुरू किया करूँगा और शाम को अधेरा होने से पहले खत्म कर दिया करूँगा। पर निकलते निकलते मुझे 10ः30 बज ही गए।
जालन्धर में मैं करीब तीन दिन रूका, पर इन तीन दिनों में मुझे दीप भाटिया का कोई फोन नही आया। अमित पाहवा का भी फोन नही आया और भी कई क्लासमेट थे जिनका फोन नही आया। मुझे बहुत ही हैरानी हुई इस बात से, क्योंकि मैं ये नहीं कह रहा कि जो मैं काम कर रहा था या करने जा रहा था और जो पहले कर चुका हूँ काठमान्डू से दिल्ली, वो मेरे अलावा किसी ने किया नहीं है और कोई कर नहीं सकता है। बहुत लोगो ने किया है और आगे भी करेंगे। पर बहुत लोगों के बाद भी वो बहुत कम लोग है। 100 मे 1 नहीं शायद आपको 1000 मे कोई 1 मिलेगा जो इस तरह के रिस्क (risk) लेते हैं, अकेले करना और बिना पैसों के करना। हकीकत में अभी तक किसी को भी ये नहीं पता था कि मैं ये यात्रा बिना पैसों के कर रहा था। और तो और मैं भी खुद पक्का नहीं था। ये बात मैं आपको पूरी ईमानदारी से बता रहा हूँ।
मैं बहुत हैरान था कि अगर मेरा कोई दोस्त, बचपन का दोस्त कोई ऐसा काम कर रहा है और वो खुद ही मेरे शहर आया हो उस यात्रा के दौरान और खुद ही मुझसे मिलना भी चाह रहा हो, मुझे फोन कर रहा तो क्या मैं उसको अपने रोज़मर्रा के कामों का कारण दे सकता हूँ। यहाँ तक की उसको फोन भी न करूँ। और हमारे बीच कोई नाराज़गी भी नहीं है। फिर भी ये कैसे हो सकता है। मैं बहुत हैरान हुआ कि ऐसा किस वजह से हो सकता है। क्योेेेेेेेेेेेेेेेेें कोई हौसला अफजाई करने नहीं आया ? वो जानते हैं कि जो ये कर रहा है, चाहे वो उनकी और बहुत सारे दूसरे लोगों की नज़र में सही नहीं है, वो इसको पागलपंती कहते हैं, बेवकूफी भरा कदम कहते हैं, उन्हें लगता है कि मैं ये पब्लिसिटी (publicity) के लिए कर रहा हूँ, कोई कहता है कि आप अपने यूटयूब चैनल (YouTube channel) के लिए कर रहे हो, कोई बोलता है कि अलग दिखने के लिए कर रहे हो, कोई कहता था कि आप जो भी कर रहे हो इससे कोई फायदा नहीं होगा, कोई जागरूकता नहीं फैलेगी और तो और कुछ ने तो ये भी कहा कि जब इसके बदले में आपको कुछ नही मिल रहा तो आप कर क्यों रहे हो।
लेकिन फिर भी अनजान लोगों ने बोला कि हम आपके इस कदम को सही नही मानते पर हम मानते हैं कि आपने कोई कदम तो उठाया। पर मेरे करीबी लोगों ने मेरी हौसला अफजाई नहीं करी। यहाँ तक की मुझसे मिलने भी नहीं आए, फोन करके मेरा हाल चाल तक नहीं पूछा। अगर वो मेरे इस कदम को सही नहीं मानते तो इसमें कोई गलत बात नहीं है। ये सारे सवाल अपने दिमाग में ही लेकर करके मैं वहाँ से चल दिया।
वैसे ही साइकल धीरे-धीरे चला रहा था, रास्ते में आने वाली जगहों को देख रहा था। घर से थोड़ी सी दूरी पर ही कम्पनी बाग। (Company Bagh, Jalandhar) है, जो वहाँ का काफी खूबसूरत और मशहूर पार्क है। जहाँ मैं जब पंजाब जाता हूँ तो अमज़द के साथ सुबह की सैर के लिए जाता हूँ। मेरी मम्मी आज भी रोज़ सुबह वहाँ सैर करने के लिए आती है। जालन्धर में बहुत सारे चैराहे हैं, उन चैराहो को देखते हुए जालन्धर कैन्ट की तरफ चल पड़ा, जालन्धर के बाद जालन्धर छावनी आता है, वहीं से आप जालन्धर से बाहर की तरफ जाते हो, जो रास्ता दिल्ली की तरफ जाता है। रेलवे स्टेशन (railway station) आया, बस अड्डा आया। बस अड्डे के पास एक नरेन्दर सिनेमा हाॅल है जहाँ पर मैने अपने स्कूल टाइम मे एक दो मूवी देखी थी। मैने और अमज़द ने आखरी मूवी करन-अर्जुन , मेरे घर छोड़ने से कुछ दिन पहले ही देखी थी।
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